येदियुरप्पा को CM बनने से रोकने के लिए सिद्धारमैया ने खेला लिंगायत कार्ड: अमित शाह

नई दिल्ली: कर्नाटक विधानसभा चुनाव में लिंगायतों को अलग धर्म की मान्यता देने का मसला गरमा सकता है. सिद्धारमैया सरकार ने वीराशैव-लिंगायत समुदाय को अलग संप्रदाय का दर्जा देने वाले प्रस्ताव को केंद्र सरकार के पाले में डाल दिया है. वहीं बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के हालिया बयान से स्पष्ट है कि केंद्र सरकार वीराशैव-लिंगायत को अलग धर्म की मान्यता देने के मूड में नहीं है. न्यूज एजेंसी ANI के मुताबिक अमित शाह ने कहा, ‘वीराशैव-लिंगायत समुदाय पर सिद्धारमैया सरकार का प्रस्ताव चिंताजनक है, यह एक षड्यंत्र है. सिद्धारमैया सरकार ने विधानसभा चुनाव से पहले लोगों को गुमराह करने के लिए यह कदम उठाया है. यह कदम इसलिए उठाया गया है ताकि बीएस येदियुरप्पा को अगला मुख्यमंत्री बनने से रोका जा सके. हम ऐसा नहीं होने देंगे.’

बीजेपी अध्यक्ष ने एक सवाल के जवाब में कहा कि राज्य की कांग्रेस सरकार चुनाव के बाद बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनने से रोकने और समुदाय को बांटने के उद्देश्य से लिंगायतों के लिए धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जे का मुद्दा उठा रही है. अमित शाह कई रैलियों में कह चुके हैं कि लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने से हिंदू धर्म में बंटवारा हो जाएगा.

केंद्र सरकार के पाले में गेंद
कांग्रेस सिद्धारमैया सरकार ने 19 मार्च को वीरशैव-लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने का सुझाव मंजूर किया था. यह मंजूरी नागभूषण कमेटी के सुझाव और राज्य अल्पसंख्यक कानून की धारा 2डी के तहत दी गई. अब इसे अंतिम मंजूरी के लिए केंद्र सरकार के पास भेजा गया है.

जानें लिंगायत कौन हैं?
बड़ा सवाल यह है कि अलग धर्म की मांग करने वाले लिंगायत आखिर कौंन हैं? क्यों यह समुदाय राजनीतिक तौर पर इतनी अहमियत रखता है? दरअसल भक्ति काल के दौरान 12वीं सदी में समाज सुधारक बासवन्ना ने हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था. उन्होंने वेदों को खारिज कर दिया और मूर्तिपूजा की मुखालफत की. उन्होंने शिव के उपासकों को एकजुट कर वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की. आम मान्यता ये है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही होते हैं. लेकिन लिंगायत लोग ऐसा नहीं मानते. उनका मानना है कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक बासवन्ना के उदय से भी पहले से था. वीरशैव भगवान शिव की पूजा करते हैं. वैसे हिंदू धर्म की जिन बुराइयों के खिलाफ लिंगायत की स्थापना हुई थी आज वैसी ही बुराइयां खुद लिंगायत समुदाय में भी पनप गई हैं.

लिंगायत और सियासत
राजनीतिक विश्‍लेषक लिंगायत को एक जातीय पंथ मानते हैं, न कि एक धार्मिक पंथ. राज्य में ये अन्य पिछड़े वर्ग में आते हैं. अच्छी खासी आबादी और आर्थिक रूप से ठीकठाक होने की वजह से कर्नाटक की राजनीति पर इनका प्रभावी असर है. अस्सी के दशक की शुरुआत में रामकृष्ण हेगड़े ने लिंगायत समाज का भरोसा जीता. हेगड़े की मृत्यु के बाद बीएस येदियुरप्पा लिंगायतों के नेता बने. 2013 में बीजेपी ने येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाया तो लिंगायत समाज ने भाजपा को वोट नहीं दिया. नतीजतन कांग्रेस फिर से सत्ता में लौट आई. अब बीजेपी फिर से लिंगायत समाज में गहरी पैठ रखने वाले येदियुरप्पा को सीएम कैंडिडेट के रूप में आगे रख रही है. अगर कांग्रेस लिंगायत समुदाय के वोट को तोड़ने में सफल होती है तो यह कहीं न कहीं बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित होगी.

एक दशक से हो रही मांग
समुदाय के भीतर लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग मान्यता दिलाने की मांग समय-समय पर होती रही है. लेकिन पिछले दशक से यह मांग जोरदार तरीके से की जा रही है. 2011 की जनगणना के वक्त लिंगायत समुदाय के संगठनों ने अपने लोगों के बीच यह अभियान चलाया कि वे जनगणना फर्म में अपना जेंडर न लिखें.

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