राज्यसभा की गरिमा और प्रसांगिकता पर प्रश्न चिन्ह

 

   

अजय कुमार,लखनऊ

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   

                                                                                                                                                                                                                                              

                                                                                                                                                                                                                                                  

राज्यसभा जिसे उच्च सदन भी कहा जाता है समय के साथ अपनी गरिमा और प्रसांगिकता खोता जा रहा है, जबकि राज्यसभा का गठन लोकसभा के ऊपर एक पुनरीक्षण सदन के रूप में हुआ था। यह सदन लोकसभा द्वारा पास किये गये प्रस्तावों की पुनरीक्षा एवं मंत्रिपरिषद में विशेषज्ञों की कमी भी पूरी करता है,क्योंकि कम से कम 12 विशेषज्ञ तो राज्यसभा में मनोनीत होते ही हैं। आपातकाल लगाने वाले सभी प्रस्ताव जो राष्ट्रपति के सामने जाते हैं, राज्य सभा द्वारा भी पास होना जरूरी होता है, लेकिन समय के साथ काफी कुछ बदल गया है। अब उच्च सदन में किसी गंभीर विषय पर बहस नहीं सियासत होती है, जबकि उच्च सदन के गठन का मूलमंत्र ही गैर-सियासी होना था। एक समय था जब उच्च सदन में ऐसे लोगों को भेजा जाता था जो किसी न किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ जैसे कानूनविद्व, वैज्ञानिक, चिकित्सक, कार्रटूनिष्ठ, लेखक, अथशास्त्री, समाजिक कार्यकर्ता, उद्योगपति, कलाकार, खिलाड़ी जैसी मशहूर हस्तियां हुआ करते थे। यह वह लोगे होते थे, जिन्हें चुनाव जीतने की कला नहीं आती थी,परंतु अब तमाम दल ऐसे लोगों को राज्यसभा भेजने में ज्यादा रूचि दिखाते हैं जो सरकार के काम में अड़ंगा लगाने की महारथ रखते हों,अक्सर ऐसे लोग भी राज्यसभा में पहुंच जाते हैं जिन्हें लोकसभा चुनाव में जनता द्वारा ठुकरा दिया जाता है। अब मशहूर हस्तियों के नाम पर गुंडे-माफिया उच्च सदन में पहुंच रहे हैं। इन्हें न लोकतंत्र के मूल्यों की चिंता होती है, न ही सदन और पीठ की गरिमा का ख्याल रहता है। अगर ऐसा न होता तो राज्यसभा में वह नजारा देखने को नही मिलता जो मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि विधेयक के विरोध के नाम पर देखने को मिला। ऐसा लग रहा था मानों उत्तर प्रदेश,बिहार,पश्चिम बंगाल के चुनाव की तैयारी राज्यसभा के भीतर की जा रही थी। तृणमूल कांगे्रस के सांसद ने पीठ(उप-सभापति) के सामने जाकर रूलिंग बुक फाड़ दी, पीठ को थप्पड़ दिखाते हुए फोटो देखी जा सकती है। वहीं कुछ महीनों से उत्तर प्रदेश में अराजकता का माहौल पैदा करने वाले आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह तो मेज पर ही चढ़ गए। राज्यसभा के सभापति वैंकेया नायडू ने हंगामा करने वाले आठ सांसदों को इस सत्र के लिए निलंबित करके अच्छा ही किया। वर्ना एक गलत परम्परा पड़ जाती।

पूरे प्रकरण के दौरान  ऐसा लग रहा था मानों विपक्ष पहले से हंगामा करने की रणनीति बनाकर आया हो। इसी लिए जब कृषि विधेयकों पर चर्चा के दौरान कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के जवाब के समय  उपसभापति हरिवंश ने कार्यवाही तय समय से आगे बढ़ाने का फैसला किया तो नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने नियमों का हवाला देते हुए कहा कि समय सबकी सहमति से बढ़ना चाहिए। विपक्ष विधेयकों को किसी भी तरह से लटकाना चाहता था। इसी लिए उसने विधेयक पास कराने की प्रक्रिया सोमवार को पूरी कराने की मांग की। विपक्षी की मंशा को भांपकर उपसभापति ने बिल पारित कराना शुरू कर दिया। तोमर ने भी अपना भाषण तत्काल खत्म कर दिया। इसी बीच विपक्षी सदस्यों ने विधेयकों को प्रवर समिति में भेजने के अपने प्रस्ताव पर वोटिंग की मांग शुरू कर दी। आसन की ओर से अनदेखी होने पर तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन ने रूल बुक हाथ में लेकर व्यवस्था का प्रश्न उठाया। इस पर भी संज्ञान नहीं लिए जाने पर गुस्से में डेरेक रूल बुक लेकर वेल में पहुंच गए और इसक ेपन्ने फाड़ आसन की ओर उछाल दिए। बौखलाए डेरेक ने आसन के माइक भी तोड़-मरोड़ दिए। कांग्रेस, द्रमुक, वामदल, आम आदमी पार्टी समेत विपक्ष के कई सदस्य वेल में पहुंचकर हंगामा करने लगे और उपसभापति पर जबरन बिल पास कराने का आरोप लगाया। हंगामा बढ़ता देख सदन के सारे माइक बंद कर दिए गए और राज्यसभा टीवी का प्रसारण भी केवल आसन तक सीमित हो गया। आखिरकार सदन को 15 मिनट के लिए स्थगित किया गया। दोबारा सदन शुरू होने की हंगामा और बढ़ गया। आसन ने मत विभाजन की मांगें को यह कहते हुए खारिज कर दीं कि सदस्य अपनी सीट पर नहीं जाएंगे तो इस पर विचार नहीं हो सकता। आप के संजय सिंह उग्र होते हुए आसन के चेहरे के सामने जाकर नारेबाजी करने लगे।

चारों तरफ मार्शलों की तैनाती के बीच हरिवंश ने दोनों विधेयकों को भारी हंगामे और अफरा-तफरी के बीच ध्वनिमत से पारित करा दिया। नाराज विपक्षी सदस्यों ने सदन स्थगित होने के बाद भी राज्यसभा चैंबर में काफी देर तक धरना देते हुए विरोध प्रदर्शन किया। ऐसा नजारा कम से कम राज्यसभा में तो कभी नहीं देखने को मिला था। राज्यसभा में हुए हंगामे ने कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए तय शारीरिक दूरी के प्रोटोकॉल की भी धज्जियां उड़ा दीं। जिस तरह विपक्षी दलों के नेता वेल में जुटे और धक्कामुक्की हुई, उसने सुरक्षा से जुड़े कई सवाल खड़े कर दिए। ऐसा लग रहा था,जैसे विपक्ष चाह ही नहीं रहा था कि कृषि विधेयक पर चर्चा हो। विपक्ष की पूरी रूचि हंगामा खड़ा करने की थी।

वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। अब राज्यसभा में गंभीर बहस देखने को नहीं मिलती है। लोकसभा की तरह राज्यसभा भी सियासत का अखाड़ा बन गया है, जबकि राज्यसभा के गठन का मकसद यही था कि इसे दलगत राजनीति से ऊपर रखा जाए। राज्यसभा के सदस्यों से यही उम्मीद की जाती थी लोकसभा से बिल पास करते समय कोई त्रुटि रह जाए तो राज्यसभा सदस्य उसमें  सुधार कर दें। इसकी वजह भी थी। राज्यसभा में तमाम सदस्य किसी न किसी क्षेत्र में जरूर विशेषज्ञता रखते थे। जब से राज्यसभा सांसद सियासी रोटियां सेंकने लगे हैं तभी से आम जनता का राज्यसभा से विश्वास उठता जा रहा है। जनता को लगता है कि राज्यसभा सांसद पूरी तरह से बेलगाम होते हैं।
दरअसल, राज्यसभा में सांसद सीधे जनता के द्वारा चुन कर नहीं आते हैं, बल्कि जनप्रतिनिघि के वोटों से राज्यसभा के लिए  सांसदों का चुनाव होता हैं। इसके पीछे की सोच यही थी कि चुनाव का दबाव नहीं होने पर राज्यसभा सांसद बेबाकी से अपना पक्ष रखेंगे,लेकिन हो इसका उलटा रहा है।
रविवार 20 सितंबर को राज्यसभा की कार्रवाई के दौरान धक्कामुक्की, माइक की तोड़फोड़, रूल बुक के पन्ने फाड़कर फेंकना, हल्ला व शोरगुल। यह सब दृश्य किसी स्कूल-कॉलेज के हॉस्टल या छात्रों के बीच की लड़ाई जैसा नजर आ रहा था। कांग्रेस के वेणुगोपाल, तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन, माकपा के रागेश और द्रमुक के त्रिची शिवा ने बिलों को प्रवर समिति में भेजने के लिए चार अलग-अलग प्रस्ताव पेश किया। उपसभापति ने इस मांग को खारिज कर दिया। इसके बाद हंगामे का ऐसा दौर शुरू जो सदन के इतिहास में शर्मनाक पन्ने की तरह जुड़ गया। विपक्षी दल लगातार उपसभापति पर संसदीय नियमों को ताक पर रखकर जबरन विधेयक पारित कराने का आरोप लगाया तो दूसरी तरफ सत्ता पक्ष का आरोप था कि विपक्षी नेता किसानों की नहीं बिचैलियों की लड़ाई लड़ रहे हैं,किसानों को तो मोहरा बनाया जा रहा है।

बहरहाल, कृषि सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण माने जा रहे विधेयकों के राज्यसभा से भी पारित होने का मतलब है कि कुछ विपक्षी दल अकारण इस पर शोर मचा रहे थे कि संपूर्ण विपक्ष उनके खिलाफ है। खासकर कांगे्रस का रवैया काफी निराशाजनक रहा।उसने एक बार फिर साबित कर दिया कि उसके लिए देश से बड़ी सियासत है। किसानों के लिए जो नया कानून आया है,वैसा ही कानून कांगे्रस मनमोहन सरकार के समय बनाना चाह रही थी,लेकिन बिचैलियों के दबाव के चलते इसमें वे सफल नहीं हो पाई थी। अगर कांगे्रस और उसके साथ खड़े कुछ छोटे-छोटे दलों के दावों में हकीकत होती तो उसके साथ संख्या बल जुटना चाहिए था। यह अच्छा नहीं हुआ कि पर्याप्त संख्या बल जुटाने में असमर्थ रहे विपक्षी दलों ने इन विधेयकों को पारित होने से रोकने के लिए छीना-झपटी का सहारा लिया। तृणमूल कांग्रेस के सांसद जिस तरह से उपसभापति से  हाथापाई सी करते दिखे, उसे गुंडई  के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। पश्चिम बंगाल में इस तरह की सियासत आम बात है। पश्चिम बंगाल संभवता देश का पहला ऐसा राज्य होगा,जहां विरोधी दलों के नेताओं को मौत के घाट उतार देने में भी सरकारें हिचकिचाती नहीं हैं।  इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि संसद के उच्च सदन में मुकाबला बहस की जगह बाहुबल से अपनी बात मनाने की कोशिश की जाए।
बेहद दुख की बात है कि कृषि सुधार संबंधी विधेयकों के पारित होने के बाद कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दल यह माहौल बनाकर आम लोगों और खासकर किसानों को गुमराह ही कर रहे हैं कि सरकार ने ध्वनिमत से विधेयकों को पारित कराकर सही नहीं किया। यदि विपक्ष को ध्वनिमत की व्यवस्था स्वीकार्य नहीं थी तो फिर उन्हें मत विभाजन की मांग करना चाहिए था,लेकिन भाजपा आरोप लगा रही है कि मत विभाजन तो तभी होता जब विपक्षी अपनी सीटों पर बैठे होते वह तो हंगामा करके राज्यसभा की कार्रवाई रोकना चाह रहे थे,ताकि बिल पास नहीं हो सके। जो भी हो, किसानों को ऐसे दलों के बहकावे में आने से बचना होगा, जो कल तक वह सब कुछ करने की जरूरत जता रहे थे, जिसे कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) तथा कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक के जरिये किया गया है। कांग्रेस ने तो इस तरह की बातें अपने घोषणा पत्र में भी दर्ज की थीं। कांग्रेस संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए किसानों को सड़कों पर उतार रही है। अच्छा हो कि किसान सड़कों पर उतरने से पहले यह देखें-परखें कि नई व्यवस्था से उन्हें नुकसान होने की जो बातें की जा रही हैं, उनमें कितनी सच्चाई है? उन्हें यह भी समझना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था खत्म होने की बातें कोरी अफवाह के अलावा और कुछ नहीं। कृषि उपज बेचने की पुरानी व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा रहा, बल्कि उसके समानांतर एक नई व्यवस्था बनाई जा रही है।

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