आखिर एमएसपी पर क्‍यों नहीं बन पा रही बात, किसान किन मांगो पर हैं अड़े?

Farmer Protest News:आखिर एमएसपी पर क्‍यों नहीं बन पा रही बात, किसान किन मांगो पर हैं अड़े?

New Delhi: न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी समेत लगभग एक दर्जन मांगो को लेकर किसान बीते कई दिनों से दिल्‍ली के बार्डर पर प्रदर्शन कर रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर एमएसपी पर किसान क्यों अड़े हुए हैं और सरकार को एमएसपी पर गारंटी देने में दिक्कत क्यों हो रही है?  सबसे पहले तो यह समझ लीजिए कि अगर सरकार ने एमएसपी पर गारंटी दे दी तो फिर फसलों को सरकार या कोई प्राइवेट कंपनी और कोई व्यवसायी उस दर से नीचे की दर पर नहीं खरीद पायेगा, चाहे बाजार भाव कम हो या ज्यादा। ऐसी स्थिति में किसान की फसल की कीमत किसी भी वजह से अगर  कम हो जाती है तो भी उसे उसकी मेहनत का फल मिल ही जाएगा। यानी किसान कभी भी नुकसान में नहीं होंगें।  इस बात की गारंटी मिल जायेगी।

यहां एक बात और बता दें कि पिछले लगभग 46 वर्षों से एमएसपी लागू है। बावजूद इसके अभी तक एमएसपी पर कोई कानून नहीं बन पाया है। हालांकि इसके लिए एक आयोग बना हुआ है, जिसका नाम कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कास्ट्स एंड प्राईज यानी CACP है। यह आयोग ही हर वर्ष फसलों की एमएसपी तय करता है। अभी फिलहाल देश में 23 फसलों पर एमएसपी लागू है, जिनमें ज्वार ,बाजरा ,धान ,मक्का ,गेहूं ,जौ,रागी ,मूंग ,अरहर ,चना,उड़द ,मसूर ,सोयाबीन ,कुसुम ,मूंगफली ,तोरिया-सरसों ,तिल ,सूरजमुखी ,नाइजर बीज ,कपास ,खोपरा ,गन्ना  और कच्चा जूट है। इन फसलों की कीमत इनकी बुआई  के समय ही तय कर दी जाती है। पिछले कुछ वर्षों में केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार और वर्तमान में एनडीए की सरकार ने एमएसपी पर वृद्धि की थी। 2005 से लेकर 2015 के बीच, कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में धान और गेहूं के लिए एमएसपी दोगुनी से ज्यादा बढ़ाई गई। यूपीए सरकार में धान पर एमएसपी 143 फीसदी और गेहूं पर 127 फीसदी बढ़ोतरी हुई थी। इसी बीच सरसों में 82 फीसदी की तेजी हुई थी।

वहीं, 2015 से 2024 के दौरान बीजेपी सरकार में एमएसपी में उतनी तेजी नहीं आई। धान के लिए एमएसपी 60 फीसदी और गेहूं के लिए 57 फीसदी तक बढ़ी। सरसों का एमएसपी 82 फीसदी तक बढ़ी। बहरहाल उपरोक्त 23 फसलों पर एमएसपी पहले से ही तय है लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है। अभी यह सरकार की मंशा पर निर्भर करता है कि  वो इन फसलों पर एमएसपी दे या ना दे। सरकार चाहे तो एमएसपी नहीं भी दे सकती है, क्योंकि इसको लेकर अभी देश में कोई कानून नहीं बना है। किसान यही चाहते हैं कि  सरकार एमएसपी को लेकर एक कानून बना दे। कुछ माह पहले भी जब किसानों ने आंदोलन किया था तो उनकी मांगों में सबसे ऊपर एमएसपी ही थी। उस समय सरकार ने इनको आश्वासन देकर आंदोलन खतम करवा दिया था।  उसके लिए एक नया कृषि कानून भी बना दिया गया था, जिसे किसान संगठनों के दबाव के बाद वापस ले लिया गया था। अब किसान एक बार फिर उन्ही मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं।

क्या है किसानों की मांगें?

 MSP पर कानूनी मान्यता: किसानों की पहली और सबसे जरूरी मांग ये है कि सरकार MSP को लेकर कानून बनाए, ताकि किसानों की फसल का उचित दाम मिल सके।

 स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना: किसानों की दूसरी मांग स्वामीनाथन आयोग कि सिफारिशों को लागू करना है। इस रिपोर्ट में MSP कुल लागत मूल्य से कम से कम 50% अधिक रखने की सिफारिश की थी। इसे C2+50 फॉर्मूला कहा जाता है। किसान चाहते हैं कि सरकार इसे लागू करे।

 किसानों के लिए पेंशन: किसानों की तीसरी मांग किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए पेंशन है। किसानों की लंबे समय से मांग है कि उन्हें और खेतिहर मजदूरों को भी बुढ़ापे में पेंशन मिले।

इन मांगो के अलावा किसानों की कुछ और मांगे भी हैं। किसान कर्ज माफी, बिजली दरों में कोई बढ़ोतरी नहीं, पिछले विरोध प्रदर्शनों के दौरान दर्ज पुलिस मामलों को वापस लेने, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में मारे गए किसानों के लिए न्याय, भूमि अधिग्रहण अधिनियम को बहाल करने और विरोध प्रदर्शनों के दौरान मरने वालों के परिवारों के लिए मुआवजे की मांग कर रहे हैं। प्रदर्शनकारी किसान फिलहाल पंजाब और हरियाणा के बीच शंभू बॉर्डर से लगभग 200 किमी दूर दिल्ली से डेरा डाले हुए हैं।

सरकार के सामने क्या है चुनौती?

किसानों का आंदोलन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हो रहा है। सरकार अब तक चार दौर की बातचीत में किसानों को आश्वासन दे चुकी है, लेकिन इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। सरकार के सामने भी कुछ चुनौतियां हैं

 अब संसद सत्र बुलाना मु्श्किल: किसानों का आंदोलन बजट सत्र के बाद शुरू हुआ है, जो कि इस सरकार का आखिरी संसद सत्र था। करीब दो हफ्ते में चुनाव आयोग लोकसभा चुनावों का ऐलान कर देगा, ऐसे में अगर सरकार किसानों की बात मान भी लेती है, तो भी वो कानून कैसे बनाएगी, क्योंकि इसके लिए संसद सत्र बुलाना पड़ेगा।

 MSP पर कानून बनाना मुश्किल: दूसरा सभी फसलों पर MSP देना सरकार के लिए मुश्किल है। अगर सरकार ऐसा करती है, तो एक अनुमान के अनुसार इस पर 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा। सरकार ने अंतरिम बडट में पूंजीगत निवेश पर 11.11 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा है। अगर सभी फसलें MSP पर खरीदी जाएंगी तो कर्मचारियों को वेतन और पेंशन कहां से देगी। इससे वित्तीय संकट पैदा हो सकता है।

लंबा चल सकता है किसानों का आंदोलन

किसानों ने 21 फरवरी तक का अल्टीमेटम सरकार को दिया है। किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने कहा कि सरकार के पास 21 फरवरी तक का समय है। सरकार को सोचना और समझना चाहिए कि ये दो चीजें (तिलहन और बाजरा) (खरीद के लिए) बहुत महत्वपूर्ण हैं। जैसे उन्होंने दालों, मक्का और कपास का उल्लेख किया, उन्हें इन दोनों फसलों को भी शामिल करना चाहिए। अगर इन दोनों को शामिल नहीं किया गया तो हमें इस बारे में फिर से सोचना होगा…कल हमने फैसला लिया कि अगर 21 फरवरी तक सरकार नहीं मानी तो हरियाणा भी आंदोलन में शामिल होगा। इसके अलावा हाल ही में संयुक्त किसान मोर्चा ने भी इस आंदोलन को समर्थन देने की बात कही। किसान नेता राकेश टिकैट ने साफ तौर पर कहा था ये आंदोलन अभी लंबा चलेगा।

और भी हैं चुनौतियां

भारत में खेती काफी बदल गई है. 1960 के दशक तक भारत में अनाज की कमी रहती थी और हर समय भुखमरी और अकाल का खतरा रहता था. इस दौर में भारत विदेशी अनाज पर निर्भर था. खासकर अमेरिका से सहायता के तौर पर आए पीएल 480 गेहूं से देश की जरूरतें पूरी होती थी. लेकिन अब भारत में खपत से ज्यादा अनाज का उत्पादन होता है. खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में बताया है कि 1 जुलाई 2023 को सेंट्रल पूल में 253 लाख टन चावल और 301 लाख टन गेहूं है. जबकि दरअसल 135 लाख टन चावल और 275 लाख टन गेहूं का स्टॉक रखना ही पर्याप्त है यानी नॉर्म इतने का ही है. सरकार ने हाल ही में जानकारी दी है कि पिछले साल यानी 2023 में 600 लाख टन चावल की सरकारी खरीद हुई, जबकि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की जरूरत सिर्फ 350 लाख टन चावल की ही है. एमएसपी पर अनाज खरीदने की नीति भुखमरी के दौर में उपयोगी साबित हुई थी. पर बदली हुई परिस्थिति में उसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है.

भंडारण क्षमता का अभाव: एमएसपी रेट पर बड़ी मात्रा में अनाज की खरीदारी के साथ भंडारण की समस्या भी जुड़ी हुई है. सरकार ढेर सारा अनाज खरीद तो लेती है, लेकिन फूड कार्पोरेशन के पास पूरे अनाज को रखने के लिए गोदाम नहीं है. इसलिए अक्सर देखा जाता है कि अनाज गोदामों के बाहर खुले में रखा होता है और काफी अनाज इस वजह से खराब हो जाता है. एमएसपी को तो क्रमिक तरीके से खत्म किया जाना चाहिए, पर भंडारण के लिए तो तत्काल ही कुछ ठोस कदम उठाए जाने चाहिए.

सरकारी खरीद में क्षेत्रीय असमानता और भेदभाव: एमएसपी पर सरकारी खरीद का लाभ हर क्षेत्र के किसानों को नहीं मिल पाता. खासकर पंजाब और हरियाणा के किसान इसके बड़े लाभार्थी हैं, जबकि अब अनाज तो ज्यादातर राज्यों में सरप्लस हो रहा है. ये मुख्य रूप से इसलिए है क्योंकि हरित क्रांति की शुरुआत से ही ये दो राज्य ढेर सारा सरप्लस अनाज उगा रहे थे और इसलिए यहां एमएसपी पर सरकारी खरीद की परंपरा रही है. ये भी एक समस्या है कि पंजाब और हरियाणा में चावल की खपत कम है, और यहां की स्थितियां भी धान उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं हैं. खासकर इसलिए क्योंकि धान की फसल में पानी काफी लगता है. पर सस्ती या मुफ्त बिजली और भारत में जमीन के नीचे से असीमित पानी मुफ्त निकालने की सुविधा के कारण यहां के किसान धान उगाने में फायदा देखते हैं.

 छोटे किसानों को लाभ नहीं: एमएसपी पर सरकारी खरीद का लाभ वही किसान उठा सकता है, जिसके पास अपने परिवार की जरूरत से ज्यादा अनाज है. बाकी लोग इससे वैसे भी बाहर हैं.  भारत के सिर्फ 1.93 करोड़ किसानों से ही सरकार, एमएसपी के तहत खरीदारी कर पाती है. यानी ज्यादातर किसानों के लिए इस नीति का कोई लाभ नहीं है और उनके जीवन में एमएसपी से कोई बदलाव नहीं आ रहा है.

खेत मजदूरों के जीवन में कोई सुधार नहीं: खेत मजदूरों के लिए भी एमएसपी पर अनाजों की सरकारी खरीद की व्यवस्था का कोई मतलब नहीं है. पंजाब और हरियाणा के जिन किसानों के जीवन में एमएसपी के कारण अमीरी आई, उन्होंने इसका कुछ लाभ पंजाब और हरियाणा के खेत मजदूरों को पहुंचाने की जगह, बिहार से सस्ता मजदूर ले आना बेहतर समझा. छिटपुट ऐसी खबरें भी आती हैं कि किस तरह मजदूरों को इन इलाकों में बंधुआ बनाकर रखा जाता है. मजदूरों के जीवन में बदलाव के लिए एमएसपी से परे सोचे जाने की जरूरत है.

पर्यावरण की चिंता: एमएसपी पर सरकारी खरीद की गारंटी के कारण पंजाब और हरियाणा में धान की फसल ली जा रही है, जिसका बुरा असर पर्यावरण संतुलन पर पड़ रहा है. जमीन में पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है और इसे लेकर पर्यावरणविद लगातार चिंता जता रहे हैं. गेहूं-धान के फसल चक्र के लिए समय पर खेत को तैयार करना भी जरूरी होता है. इसलिए किसान पराली या पुआल जलाते हैं जिसके कारण दिल्ली से लेकर पंजाब और आसपास के इलाकों में सर्दियों में धुआं-धुआं हो जाता है और सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है.

 दबाव में नीतियां बनाने और जारी रखने के खतरे: एमएसपी को लेकर जो भी नीतियां बनाई जा रही हैं, उनके पीछे वोट पाने का लालच और किसानों का दबाव दोनों पहलू काम करते हैं, जबकि राष्ट्रीय महत्व के इस विषय पर नीति निर्धारण बेहद संतुलित और दबाव मुक्त तरीके से होना चाहिए. चूंकि पंजाब और हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश दिल्ली के पास हैं, इसलिए यहां के किसान डेढ़-दो हजार ट्रैक्टर लेकर कभी भी दिल्ली आ सकते हैं. ये बात नीति निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करनी चाहिए. पर वास्तविकता में ये हो नहीं पाता. दिल्ली का चक्का जाम न हो, इसके लिए देश की नीतियां बनाई और चलाई नहीं जा सकतीं. ये अराजकता का व्याकरण है, जिसकी ओर बाबा साहब डॉक्टर बीआर आंबेडकर ने संविधान सभा में ध्यान दिलाया था. ऐसे मामले लोकतांत्रिक तरीके से हल होने चाहिए, दबाव से नहीं.

 खेती में विविधता की जरूरत: किसानों को एमएसपी फसलों के चक्र से बाहर लाने की भी जरूरत है. सरकारी खरीद पर निर्भरता ने उनकी रचनात्मक क्षमता को सीमित कर दिया है और वे विविधता लाने के लिए कम प्रयत्नशील होते हैं. मिसाल के तौर पर, ऐसी फसलें हो सकती है, जिनका उत्पादन एमएसपी फसलों से ज्यादा लाभकारी हो. साथ ही कुछ उत्पादों की, खासकर तिलहन और दलहन की भारत में कमी रहती है. जरूरत इस बात की है कि किसान इनके उत्पादन पर भी जोर लगाएं. पंजाब में इस दिशा में कुछ सकारात्मक बदलाव देखा गया है.

सरकार जब कृषि सुधार के लिए दो साल पहले तीन कृषि कानून लेकर आई थी, तो उसके सकारात्मक पहलुओं के बारे में देश को बताने में नाकाम रही थी. साथ ही आंदोलन का शोर भी बहुत ज्यादा था. इस बारे में राष्ट्र को गंभीरता से और नए सिरे से सोचना चाहिए.

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