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जब अटल जी ने कहा, ‘महान भारत के लिए दूसरा जन्‍म लेकर भी जूझने को तैयार रहूंगा’

नई दिल्ली: पूर्व प्रधानमंत्री, भारत रत्न और बीजेपी के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी अनंत यात्रा पर चले गए. अटल जी की अंतिम विदाई में उमड़े जनसैलाब ने ये बता दिया कि पिछले 9 सालों से अपने राजनेता की झलक पाने के लिए देश का हर नागरिक किस तरह से व्याकुल था.

अटलजी पर लिखी गई किताब ‘राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष: अटल बिहारी वाजपेयी’ में उनके व्यक्तिव से जुड़ी कई कहानियां हैं. इसके लेखक डॉ. सौरभ मालवीय ने उनके व्यक्तित्व को इस किताब में दर्शाया है. अटल जी राजनीति को परिवर्तन का माध्यम मानते थे. लेखक ने 23 जनवरी, 1982 में महाराष्ट्र की पुणे नगरपालिका द्वारा आयोजित गौरव सम्मान समारोह का जिक्र किया है, जिसमें उन्हें सम्मानित किया गया था. लोगों को संबोधित करते हुए अटल जी ने उन्होंने कहा था, ‘मेरे लिए राजनीति सेवा का एक साधन है. परिवर्तन का माध्यम है. सत्ता सत्ता के लिए नहीं है. विरोध विरोध के लिए नहीं है. सत्ता सेवा के लिए है और विरोध सुधार के लिए-परिष्कार के लिए है. लोकशाही एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें बिना हिंसा के परिवर्तन लाया जा सकता है. आज सार्वजनिक जीवन में अस्पृश्यता बढ़ रही है, यह खेद का विषय है. उन्होंने कहा था कि मतभेद के बावजूद हम इकट्ठे हो सकते हैं. प्रामाणिक मतभेद रहेंगे. ‘पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्ना’ और मतों की टक्कर में ही भविष्य का पथ प्रशस्त होगा, लेकिन मतभेद एक बात है और मनभेद दूसरी बात है. मतभेद होना चाहिए, मनभेद नहीं होना चाहिए. आखिर तो इस देश का हृदय एक होना चाहिए’.

अटल जी मुखर वाणी के धनी थे. वे अपने विचारों को बड़े ही सहज और सरल तरीके के साथ जनता के सामने रखते थे. अपने सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था, ‘महापौर महोदय, मैं आपसे और आपके साथियों से कहना चाहूंगा- राजनीतिक नेताओं का ज्यादा सम्मान मत करिए. पहले ही वे जरूरत से ज्यादा रौशनी में रहते हैं. अब देखिए सारी रौशनी यहां जुटी हुई है और आप अंधेरे में बैठे हैं. राजनीति जीवन पर हावी हो गई है.’ उन्होंने कहा था कि सम्मान राजनेताओं की जगह उन लोगों का होना चाहिए, जो दिन-रात मेहनत करते हैं और सभी के लिए काम करते हैं. उन्होंने अपने भाषण में कहा था, ‘सम्मान होना चाहिए काश्तकारों का, कलाकारों का, वैज्ञानिकों का, रचनात्मक कार्यकर्ताओं का, जो उपेक्षित हैं उनका. कुष्ठ रोगियों के लिए जो आश्रम चला रहे हैं, उनका अभिनन्दन होना चाहिए. उनका वन्दन होना चाहिए’.

उन्होंने अपने भाषण में जनरल वैद्य का भी जिक्र किया, उन्होंने कहा, ‘जनरल वैद्य रिटायर होकर आए. मैं नहीं जानता पुणे महानगरपालिका ने उनका अभिनन्दन किया था या नहीं. उनका अभिनन्दन होना चाहिए. कैसा विचित्र संयोग है. घटनाचक्र किस तरह से वक्र हो सकता है. जो सेनापति रणभूमि में शत्रुओं के टैंकों को भेदकर जीवित वापस चला आया, वह अपने देश में, अपने ही घर में, देश के कुछ गद्दारों के हाथों शहीद हुआ. मित्रों, हम परकीयों से परास्त नहीं हुए. हम तो अपनों से ही मार खाते रहे, मार खाते रहे. स्वर्गीय वैद्य का मरणोपरान्त भी सत्कार हो सकता है-समारोह हो सकता है. आज मैंने अपनी सुरक्षा का काफी प्रबंध पाया, मगर कहीं यह सुरक्षा पर्याप्त नहीं है’.

किताब में लिखा है कि अटल जी ने अपने भाषण में संविधान का जिक्र किया. उसमें लिखा है. We the people of India. संविधान में दलों का उल्लेख नहीं है. वैसे संसदीय लोकतन्त्र में दल आवश्यक है, अनिवार्य है. संविधान के प्रथम पृष्ठ पर अगर किसी का उल्लेख है- We the people of India. We the citizens नहीं है. हम इस देश के लोग, भारत के जन. अलग-अलग प्रदेशों में रहने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले, अलग-अलग उपासना पद्धतियों का अवलम्बन करने वाले, मगर देश की मिट्टी के साथ अनन्य रूप से जुड़े हुए लोग है. यहां की संस्कृति के उत्तराधिकारी और उसके सन्देश वाहक हैं. कोई फॉर्म भर कर नागरिकता प्राप्त कर सकता है, मगर देश का आत्मीय बनने के लिए, देश का जन बनने के लिए संस्कारों की आवश्यकता है-मिट्टी की अनन्य सम्पत्ति आवश्यक है.’

अपने भाषण के अंत में अटल जी ने कहा था कि भारत अगर चाहे, तो संसार में प्रथम पंक्ति का राष्ट्र बन सकता है. फिर मैं कहना चाहूंगा कि परकीय हमारे पैर नहीं खींच रहे. हम अपने ही पैरों में बेड़ियां डाले हैं. इन्हें हम तोड़ने का संकल्प करें. राष्ट्र को मिलन भूमि मानकर व्यक्ति से ऊपर उठकर जरूरत हो तो दल से ऊपर उठकर- ‘तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें न रहें’. व्यक्ति तो नहीं रहेगा. किताब में अटल जी के जीवन की एक खास बातचीत का जिक्र है. इसमें वह कहते हैं ‘किसी ने मुझसे पूछा था-आपका सपना क्या है? मैंने कहा- एक महान भारत की रचना. कहने लगे कि आपका सपना, क्या आपको भरोसा है कि आपके जीवन में पूरा हो पाएगा? मैंने कहा-नहीं होगा, लेकिन सपना पूरा करने के लिए फिर से इस देश में जन्म लेना पड़ेगा. मैं जन्म-मरण के चक्र से छूटना चाहता हूं. लेकिन अगर मेरे देश की हालत सुधरती नहीं है, भारत एक महान-दिव्य-भव्य राष्ट्र नहीं बनता है, अगर हर व्यक्ति के लिए हम गरिमा की, स्वतन्त्रता की गारंटी नहीं कर सकते, अगर विविधताओं को बनाए रखते हुए एकता की रक्षा नहीं कर सकते, तो फिर दूसरा जन्म लेकर भी जूझने के लिए तैयार रहना पड़ेगा.

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