भारतीय संस्कृति की गंगा का जन्म जिस हिमालय से हुआ है वह है अध्यात्म। विश्व में यदि आज भी भारत की कोई मौलिक पहचान है तो वह इसकी आध्यात्मिक समृद्धि से ही है। भ्रष्टाचार, अनाचार के दलदल में डूबते भारत देश तथा भारतीय संस्कृति को यदि कोई सुरक्षित रखे हुए है तो वह इसके मूल में विद्यमान सुदृढ़ आध्यात्मिकता ही है। यह आस्थावान लागों का देश है। इस विशाल देश में बहुरंगी संस्कृति, जीवन शैली, बोली, भाषा आदि का अपूर्व संगम है किन्तु ऋषियों, साधु−सन्तों एवं विद्वानों द्वारा अर्जित ज्ञान की सुदृढ़ रज्जु एक बहुरंगी माला की तरह सभी को एक सूत्र में पिरोये हुए है। यहां के निवासियों का अहिंसा एवं शांतिवादी तथा संपूर्ण मानवता के कल्याण की कामना से ओतप्रोत समग्रता पूर्ण चिन्तन भारतीय संस्कृति का मूल लक्षण है। यही कारण है कि कुम्भादि पर्वों पर तीर्थादि में एकत्र होने वाला विशाल जनमानस किसी भी भारतीय को आश्चर्य चकित नहीं करता यद्यपि महाकुम्भ विश्व का सबसे बड़ा मानव मेला है। तीर्थराज प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन तथा नासिक में पड़ने वाले ये कुम्भ पर्व, निःसंदेह संपूर्ण भारतवासियों को आपस में जोड़ते हैं तथा सर्वे भवन्तु सुखिनः एवं वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को साक्षात् मूर्तिमान करते हैं। तीर्थराज प्रयाग में महाकुम्भ एवं अर्द्ध कुम्भों में स्नान, जप, दान आदि का महत्व भी पुराणों में वर्णित है। अमावस्यायुक्त मकर राशि पर सूर्य और चन्द्र तथा वृष राषि पर गुरु के कारण प्रयाग में महाकुम्भ का योग आता है−
माघे वृष गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।